पंजाब के सियासी समीकरण: दलित वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती है सियासत, कभी एक पार्टी से नहीं बंधे

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पंजाब में 117 सीटों का विधानसभा है, जिसमें से 34 सीटें आरक्षित हैं। इनमें से 69 सीटें मालवा क्षेत्र से हैं, जिनमें से 19 विधानसभा सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। माझा क्षेत्र में कुल 25 विधानसभा सीटें हैं, जिनमें से 7 अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। दोआबा क्षेत्र की 23 विधानसभा सीटों में से 8 आरक्षित हैं।

पंजाब में दलित समुदाय की अधिक आबादी के कारण राज्य के चुनावी संगठनों पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है। यहाँ दलित वोटर एक ही पार्टी में बंधे नहीं रहते हैं। इसी कारण वोटर कभी अकाली दल की और कभी कांग्रेस और आप की तरफ स्विंग करते रहते हैं।

दलित

दोआबा में दलित समुदाय का विशेष प्रतिनिधित्व है और यहां पर कई क्षेत्रों में वोट 45 फीसदी तक होता है। समग्र रूप से, दलित आबादी की मौजूदगी पंजाब में कई सीटों पर जीत-हार का निर्णय निर्धारित करती है।

2017 विधानसभा चुनाव पर चर्चा करते हैं, तो कुल 34 आरक्षित सीटों में से 21 सीटें कांग्रेस द्वारा जीती गई थीं, जबकि नौ सीटें आम आदमी पार्टी ने अपने नाम की थीं। साथ ही, चार सीटें अकाली-बीजेपी गठबंधन के भाग बनी थीं। दलित समुदाय किसी विशेष क्षेत्र से सीमित नहीं हैं, उनकी मौजूदगी माझा दोआबा और मालवा के क्षेत्रों में भी है। 13 विधानसभा क्षेत्रों में मजहबी समुदाय की आबादी 25 फीसदी से अधिक है। इसी तरह, रविदासिया समुदाय की आबादी 15 विधानसभा क्षेत्रों में 35 फीसदी से अधिक है। पंजाब की राजनीति साबित करती है कि दलित समुदाय का वोट किसी एक पार्टी को नहीं मिलता है, इसके पीछे कई कारण हैं।

39 जातियों में बंटा दलित भाईचारा

पंजाब में दलित समुदाय 39 अलग-अलग जातियों में विभाजित है। उनके आपसी समर्थन भी टकराते हैं। पंजाब में दलित समुदाय की प्रमुख जातियों में रामदासिया, रविदास समाज, मजहबी समुदाय, मजहबी सिख, वाल्मीकि समाज, भगत और कबीरपंथी शामिल हैं। 1996 के लोकसभा चुनाव में, शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन किया था और इस संयुक्त गठबंधन ने पंजाब की कुल 13 सीटों में से 11 सीटें जीती थीं। इसमें अकाली दल को आठ सीटें और बसपा को तीन सीटें मिली थीं। उनमें से होशियारपुर सीट से बसपा के संस्थापक कांशीराम विजयी रहे थे, जबकि मोहन सिंह और हरभजन सिंह लाखा ने अपनी सीटों को जीतकर बसपा को समर्पित किया। उस चुनाव में, कांग्रेस को केवल दो सीटें मिली थीं। 1996 के बाद, दलित समुदाय का रुझान अचानक तेजी से विभिन्न पार्टियों की ओर बदल गया है। हालांकि, इससे पहले दलित समुदाय का वोट अधिकतर कांग्रेस की ओर जाता था। 1992 में, जब अकाली दल ने विधानसभा चुनाव का बायकॉट किया, तब भी कांग्रेस ने 29 आरक्षित सीटों में से 20 सीटों पर ही जीत हासिल की थी।

1997 में अकाली-भाजपा गठबंधन की तरफ खिसका वोट

1997 के चुनावों में दलितों का वोट अकाली-भाजपा गठबंधन की ओर खींच गया। भाजपा ने 1997 में चार आरक्षित सीटों पर विजय हासिल की थी। महत्वपूर्ण बात यह थी कि भाजपा ने चार ही आरक्षित सीटों पर प्रतिस्पर्धा की और इन सभी सीटों पर कांग्रेस के साथ मुकाबला किया था। दीनानगर, नरोट मेहरा, जालंधर साउथ, और फगवाड़ा सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को बड़ी हार दिलाई, जबकि अगले चुनाव में कांग्रेस के दलित सीटों पर सफलता प्राप्त हो गई थी। 2002 में, दलितों ने आप को भी पूरा भरोसा दिया और 34 आरक्षित सीटों में से 26 पर भाजपा को प्रत्याशित बनाया। कांग्रेस के दलित सीएम चरणजीत चन्नी दोनों सीटों से हार गए। दलितों का वोट आप की ओर चला गया।

विधानसभा चुनाव में स्थिति
1997 चुनाव 

रिजर्व सीटें         29
शिअद              23
भाजपा             04
कांग्रेस             01
सीपीआई          01

2002 चुनाव…
रिजर्व सीटें       29
कांग्रेस           14
शिअद           12
आजाद          01
सीपीआई        02

2007 चुनाव…
रिजर्व सीटें    29
शिअद         17
भाजपा         03
कांग्रेस        07
आजाद      02

2012 चुनाव…
रिजर्व सीटें   34
शिअद        21
भाजपा        03
कांग्रेस        10

2017 चुनाव..
रिजर्व सीट      34
कांग्रेस          21
शिअद            3
भाजपा            1
आप              9

2022 चुनाव
रिजर्व सीट    34
कांग्रेस          6
आप           26
बसपा          1
शिअद          1

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